अब्दुर्रहमान (पूर्व ब्रह्मण) से एक मुलाकात
बंदर के द्वारा अनेकश्वरवाद की दुनिया से निकले पूर्व ब्रह्मण अब नव मुस्लिम अब्दुर्रहमान का उर्दू मासिक पत्रीका 'अरमुगान' जूलाई 2012 ईं में मौलाना मुहम्मद कलीम सिद्दीकी साहब के सुपुत्र अहमद अव्वाह को दिया गया interview साक्षात्कार
अहमद अव्वाहः अस्सलामु अलैकुम
पूर्व ब्रह्मण अब नव मुस्लिम अब्दुर्रहमान: वालैकुम सलाम
अहमद: अब्दुर्रहमान भाई आप दिल्ली में कहां से तशरीफ लाए हैं?
अब्दुर्रहमान: जी में दिल्ली में रोहिणीमें रहता हूं, वहीं से आया हूं ।
अहमद: आप पिछले हफ्ते भी तशरीफ लाए थे?
अब्दुर्रहमान: जी हां अपनी पत्नि के साथ पिछले इतवार को आया था आज में अपने दोनों बेटों और बेटी को हजरत कलीम साहब से मिलाने लाया हू, असल में कल मेरी बेटी ससुराल से आयी थी, हमने बताया कि हजरत से हमारी मुलाकात हो गयी है तो बेटी ने बहुत जिद की कि मुझे भी मिलाइए, असल में उसने ‘‘नसीमे हिदायत के झोंके‘‘ किताब पढी है इस लिए वो बहुत ज्यादा हजरत से मिलना चाहती थी।
अहमद: आप पहले से कहां के रहने वाले हैं, रोहिणि तो अब रहते होंगे?
अब्दुर्रहमान: जी हम लोग पहले से रोहतक जिले के एक गांव के रहने वाले हैं, 26 साल हुए दिल्ली शिफ्ट हो गए हैं, हमारा खानादान धार्मिक हिन्दू घराना है, जात से हम लोग खानदानी ब्रह्मण हैं, मुझे ऐसा लगता है कि यह ब्रहमण आर्यन कोमें हैं, शायद यह लोग इब्राहिमी लोग होंगे, इस लिए कि मक्का के मुशरिक जो अपने को इब्राहिमी दीन पर कहते थे, उनका कलचर हमसे बहुत मिलता जुलता है, हो सकता है कि हम लोग हजरत इबराहीम के खानदान में भी रहे हों।
अहमद: आपने खूब सोचा, हो सकता है ऐसा ही हो, आपको इस्लाम कुबूल किए कितना जमाना हो गया?
अब्दुर्रहमान: यूं तो इस्लाम कुबूल किए मुझ आठ साल हो गए, मगर ऐसा लगता है कि मैं असली मुसलमान तो पिछले इतवार को हूआ हूं, असल में हिन्दू पंडितों के चक्कर से तो आठ साल पहले निकल गया था, मगर मिशाल मशहूर है आसमान से गिरा खजूर में अटका, मुसलमान बनके, पीरनुमा एक पेशावर बहरूपिए मुसलमान पंडित के चंगुल में फंस गया था और इस जालिम ने हिंदू पन्डितों को अच्छा कहलवा दिया।
अहमद: अबू कलीम साहब बता रहे थे कि एक जाहिल पीर आपको एक जमाने तक ठगता रहा, क्या उन्होंने ही आपको इस्लाम की दावत दी थी?
अब्दुर्रहमान: नहीं वह इस्लाम की दावत किया देते, मुझे तो एक बंदर ने दावत दे कर मुसलमान बनाया, हजरत कह रह थे कि आपका इस्लाम हमारे लिए एक बडी वार्निंग है कि अगर मुसलमान अपनी जिम्मेदारी अदा नहीं करेंगे और दावत इस्लाम के अपने फरीजे अर्थात कर्तव्य को अदा नहीं करेंगे तो अल्लाह ताला बंदरों से दावत का काम लेकर ब्रहमणों को मुसलमान बनाएंगे।
अहमद: जरा तफसील से सुनाइए , अल्लाह ताला ने आपको किस तरह हिदायत दी?
पूर्व ब्रह्मण अब नव मुस्लिमअब्दुर्रहमान: असल में खानदानी तौर पर ब्रहमण होने की वजह से मैं बहुत धार्मिक किसम का हिंदू था, और सब से अधिक मेरी अकीदत वैष्णो देवी से थी, उसके अलावा काली और अबा जी का भी उपाषक था, इस लिए साल में दो बार वैष्णो देवी की यात्रा करता था, शायद आप जानते होंगे, वैष्णो देवी का खास मन्दिर कशमीर में है, वहां जाना ऐसा है जैसे हज वगेरा करना, यूं समझो कि मैं भी साल में दो बार उमरे को जाता था, उमरा तो आदमी सौ फीसद अपने एक अल्लाह के साथ अपने इमान और एक अल्लाह की मुहब्बत को बढाने के लिए जाता है, वैष्णो देवी पर तो आदमी, हक को छोड कर शिर्क में भटकने के लिए जाता है, मेरे कहने का मकसद यह है कि जितना वक्त और पैसा उमरा में लगता है, उतना ही तकरीबन वैष्णो देवी की यात्रा में लगता है, हां महनत वैष्णो देवी की यात्रा में और ज्यादा है, यह कि वहां पैदल पहाड की बडी चढाई में आदमी का हाल खराब हो जाता है, इस के एलावा भी अलग अलग मंदिरों में जाता था, मेरी कमाई और वकत का एक खास हिस्सा इन पूजाओं में लगता था, बहुत बर्त यानि हिंदू रोजे रखता था, मेरे घर में एक खास कमरा जिसके तीन हिस्से करके अलग अलग देवियों के मन्दिर बनाए हुए थे, आठ साल पहले नोरते यानि खास हिंदू रोजे चल रहे थे, एक शाम को मैं बरत में पूजा में मगन था, बडी अकीदत से नम्बरवार एक के बाद एक देवी की पूजा की प्रशाद चढाता और अकीदत से दीप जलाता, अचानक पीछे के रास्ते से एक बंदर घर में घुस गया उसने कमरे में घुस कर प्रसाद पर झपटे लगाए तो दीप गिर गए और पूरे कमरे में आग लग गयी, और आग इस कदर लगी की तीनों देवियां और पूरा कमरा आग में झुलस गया, मेरे दिल में आया कि जो देवियां खुद अपनी हिफाजत नहींकर सकीं और जल कर झुलस गयीं, वो पूजा के लायक कैसे हो सकती हैं ? मैं इस आस्था और अकीदत से बहुत बद दिल होकर घर से निकला, घर से कुछ दूर एक किसी पीर की कबर पर एक मेवाती बाबा हजार दाने वाली तस्बीह (माला) लिए बैठे थे, मैं ने उनसे कहा मैं मुसलमान होना चाहता हूं, वो पीर बाबा बोले, मुसलमान होकर तुम्हें मेरा मुरीद (धर्म शिष्य) भी होना पडेगा, मैं ने कहा कि मुसलमान होने के लिए मुरीद होना भी जरूरी है, वो बोले पक्का मुसलमान तो तब ही होगा जब मुरीद हो जाएगा, मैं ने कहा कि मैं मुरीद भी हो जाउंगा, वो बोले मैं दो तरह के मुरीद करता हूं, एक मुरीद तो ऐसा होता है कि मुरीद होकर नमाज और रोजे और सारी इबादतें तुम्हें ही करना होंगी, एक मुरीद ऐसे होते हैं कि मुरीद तो मुरीद ही होता है, वो इबादात ठीक तरीके पर कहां कर सकता है, मैं ही तुम्हारी तरफ से नमाज और रोजे अदा करूंगा, उसके लिए तुम्हें माहाना खर्च देना पडेगा, मैंने मालूम किया कि माहाना खर्च किया पडेगा, वो बोले तुम्हारी आमदनी कितनी है, तुम बताओ उस मालिक के नाम पर तुम कितने खर्च कर सकते हो, मैं ने कहा मैं हाथ से बनी देवियों के नाम पर इतना खर्च करता था, तो उस मालिक के नाम पर मैं जान भी दे सकता हूं, वो बोले तो फिर अच्छा मुरीद और अच्छी नमाज रोजा पीर साहब से करवाने के लिए दस हजार रूपए माहाना खर्च करने पडेंगे, मैंने कहा मालिक का दिया बहुत है उसके नाम पर हजार रूपए कोई बडी बात नहीं। पीर बाबा ने मुझे कलिमा पढाया और एक चादर मेरे सर पर डाल कर मुझे मुरीद कर लिया, मुरीद(धर्म शिष्य) करने के लिए देर तक नाटक करते रहे।
अहमदः आपको लग रहा था कि यह नाटक है?
अब्दुर्रहमान: खुली आंखों दिखाइ दे रहा था कि यह नाटक है।
अहमद: जब आपको लग रहा था यह नाटक है, फिर भी आप सब करते रहे?
अब्दुर्रहमान: असल बात यह थी कि मुझे इस्लाम के बारे में जरा भी मालूम नहीं था, अब यह जानने वाले थे तो फिर मुझे उनकी बात माननी थी, इस डर से कि कहीं मेरे इस्लाम में कोई कमी न रह जाए, मजहब के मामले में इन्सान अपनी अकल नहीं लडाता बल्कि वो अपनी अकल को मजहब के सुपूर्द करता है। मैं आपको एक लतीफा बताउं, पिछली इतवार को जब हम हजरत से मिलने आए थे, तो मुरादाबाद के एक अंग्रेजी के प्रोफेसर साहब कलिमा पढने आए हुए थे, बहुत मुहब्बत और अकीदत से उन्होंने हजरत से कलिमा पढाने को कहा, हजरत ने उन्हें कलिमा पढवाया, हजरत ने कलिमा पढवाने से पहले कहा अपने मालिक को राजी करने के लिए और इस इरादे से कि मैं अपनी जिन्दगी अल्लाह के आखिरी कानून‘‘कुरआन मजीद‘‘ को मान कर, और अल्लाह के आखिरी रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने जो जिन्दगी गुजारने का तरीका बताया है उसके मुताबिक गुजरने के अहद अर्थात वादे की नियत से कलिमा पढ रहा हूं, पहले हम कलिमा अरबी में पढेंगे और फिर हिन्दी अनुवाद कहलवादूंगा, हजरत ने कहा जिस तरह मं कहूं कहिए, हजरत ने कलिमा कहलवाना शुरू किया ‘‘अशहदु अन्ला इलाहा इलल्लाह‘‘ यह कहते हुए हजरत के कान में खुजली आ रही थी, हजरत ने दायें हाथे से कान खुजलाया, तो प्रोफेसर साहब ने भी दायें हाथ से कान खुजलाया, हजरत ने कहलवाया ‘‘व अशहदू अन्ना मुहमदन अब्दुहू व रसूलू‘‘ सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम , हजरत की नाक के उपर एक दाना सा हो रहा था, हजरत ने बाएं हाथ से नाक पर हाथ फेरा, प्रोफेसर साहब ने भी नाक को पकडा, हम सभी को हंसी आगयी, हजरत को भी हंसी आ गयी, प्रोफेसर साहब अजीब से हो गए, हजरत ने बताया कि असल में मेरे कान औरनाक पर खुजली आ रही थी, कलिमा पढते हुए किसी ऐक्शन की जरूरत नहीं, बल्कि अन्दर से यकीन और विश्वास की जरूरत है, प्रोफेसर साहब बोले कि मजहब का मामला है, धर्म में आदमी अपनी अकल को मालिक के हुकुम के सुपुर्द करने आता है, मैं यह समझा कि कान नाक पकड कर अहद (प्रतिज्ञा) करना है, इस लिए मैं ने ऐसा किया, हजरत साहब ने समझाया कि इस्लाम इलम और अकल को मुतमईन करने वाला मजहब है, अहमद साहब इस लिए में ने बावजूद यह कि मेरी अकल कह रही थी कि यह पीर बाबा का नाटक है, मगर वो जैसा कहते गए मैं ने किया, मुरीद होकर पहले हफते की नमाज, रोजा, इबादात की फीस दस हजार रूपए, और मिठाई के लिए दो सौ रूपए में ने एडवांस में पीर साहब को जमा करा दिए।
अहमदः माशा अल्लाह ऐसे मुरीद खरी फीस अदा करने वाले कहां किसी को मिलते होंगे इसके बाद आप माहाना जमा करत रहे?
अब्दुर्रहमान: मौलाना अहम! दस हजार तो जमा करता ही थी, इसके अलावा पीर साहब आंखें लाल पीली करके मुटठी भी खोलते थे कि आज तुम्हारे लिए शुशखबरी है, तुम्हारे दरजे आसमान की तरफ चढ रहे हैं, इसकी खुशी में फरिश्तों को मनाने के लिए अब इस चीज की जरूरत है। आठ साल हो गए इस्लाम कुबूल किए, ओसतन बीस हजार रूपए माहाना मैं ने पीर बाबा को जरूर दिए होंगे।
अहमदः इतने पैसे पीर बाबा को देते थे। आपका कारोबार क्या है?
अब्दुर्रहमान: मेरा एक महूर ब्यूटी पार्लर है, मैं और मेरी बीवी दोनों उस में काम करते हैं।
अहमदः इसमें इतनी आमदनी हो जाती है, आपकी फीस क्या है?
अब्दुर्रहमान: मालिक का करम है, काम बहुत अच्छा है, मेरी बीवी दुल्हन बनाने की फीस पचास हजार रूपए भी ले लेती हैं।
अहमदः तो पीर बाबा की क्या खता है। आप भी भरते के लिए लेते हैं, पीर बाबा भी रूप भरने के लिएण् ही लेते हैं।
अब्दुर्रहमान: बात तो आपकी ठीक है, जब मैं हजरत से पिछले दिनों बैत (भक्ति प्रतिष्ठा) हुआ था तो हजरत ने मालूम किया था कि आप का कारोबार क्या है? मैं ने कहा कि ब्यूटी पार्लर है, तो हजरत ने फरमाया कि रोजगार पाक और हलाल होना चाहिए, मैं ने हजरत से कहा कि मैं आज से ब्यूटी पार्लर बंद कर दूं, हजरत ने फरमाया कि कोई अच्छा हलाल तैयब रोजगार तलाश करें, बिल्कुल हराम तो नहीं हां अच्छा नहीं, जब दूसरा रोजगार मिल जाए तो इसको छोड देना, हां अलबत्ता तब तक मुफती साहब का नाम बताया कि उनसे मालूम करें कि ब्यूटी पार्लर में क्या कर सकते हैं और क्या नहीं, इसका खयाल करें, मैं ने कहा कि हजरत मैं ने देवियों को राजी करने के लिए इतनी कुरबानियां दी हैं, मैं अपने अल्लाह को राजी करने के लिए आप से (भक्ति प्रतिष्ठा) बेअत हुआ हू, अगर मेरे अल्लाह की रजा जान देने में है तो मैं जान देने के लिए तैयार हो कर आया हूं, आप मुझे बस हुकुम करें।
अहमदः हजरत से आप मुरीद हो गए, आप तो पहले पीर बाबा से मुरीद थे, अब दोबारा मुरीद कैसे हो गए?
अब्दुर्रहमान: असल में मैं तीन साल से हजरत से मिलना चाह रहा था हजरत को फोन करता था, पहले मिलता ही न था तो हजरत सफर पर होते, दस रोज पहले मैं ने फोन किया तो फोरन कहा कि मैं आठ साल पहले मुसलमान हुआ हूं, मुझे जिन मौलाना साहब ने हजरत का पता दिया था उन्हों ने कहा था कि अपना नाम बताने से पहले यह बता देना, फिर हजरत कहीं न कहीं मिलने की शकल बता देंगे। मैं ने जब कहा कि मैं तीन साल से आप से राबता करने की कोशिश कर रहा हूं, हजरत ने बहुत माजरत की और फरमाया कि इतवार के रोज ‘शाहीन बाग‘ आप आ जाएं, बहुत लोगों को मैं ने बुला लिया है, मगर फिर भी आप की जियारत हो जाएगी।
अहमदः हजरत का पता आपको किसने दिया था?
अब्दुर्रहमान: मुझे एक मौलाना साहब ने हजरत की किताब‘‘आपकी अमानत आपकी सेवा में‘‘, ‘‘हमें हिदायत कैसे मिली‘‘ और ‘‘नसीमे हिदायत के झोंके‘‘ खरीद कर लाकर दी थी, मैं ने वो पढी, असल में मैं अपने पीर बाबा की मुसलसल ठगी और जुल्म से परेशान था, और मैं आठ साल तक इस मुरीदी से यह बात समझा कि मजहब के नाम पर शिर्क(अनेकश्वरवाद), धर्म के नाम पर सब से बडा अधर्म धार्मिक पंडितों ने कैसे चलाया, शिर्क के नाम पर लोगो को गुलाम बनाकर उनको ठगने का नाम शिर्क(बहीश्वरवाद) है, मजहब इन्सान की अन्दरूनी प्यास है, उसकी आत्मा यह मांगती है कि वो अपने खुदा को राजी करे उसके लिए उस से जो कुरबानी मांगी जाए इन्सान देता है, तकरीबन बीस हजार रूपए मेरी माहाना फीस के अलावा पीर बाबा ने मुझ पर न जाने क्या क्या जुल्म किए। मेरी लउकी बहुत खूबसूरत थी, इन्टर में पढ रही थी अचानक एक जुमेरात में मैं पीर बाबा के पास गया, हर जुमेरात को कुछ हदिया ले कर जाना पडता था, मैं पहुंचा तो पीर बाबा बहुत खुश थे, बोले अब्दुर्रहमान तेरे लिए मैं जो इबादत कर रहा हूं वो मालिक के यहां बहुत कुबूल हो रही है, पीर और मुरीद का रिश्ता तो आक़ा और गुलाम का होता है, मगर शायद तुझे अपने पीर के बराबर दरजा मिलने वाला है, आज उपर से मुझे इशारा हुआ है, अब्दुर्रहमान पहले ही तुम्हारा गुलाम है, मगर उसकी अकीदत हमें बहुत कुबूल है, अपने बेटे से उसकी बेटी और फिर अपनी बेटी से उसके बेटे की शादी करदो, यह एजाज़ बेटा तुम्हें मुबारक हो, तुम्हारी औलाद ने कैसा नसीब पाया है, पीर के बेटे और बेटी से आसमान से रिश्ता जुडवा लिया है, मैं ने कहा अगर मेरे मालिक का यह हुकुम है तो मैं हाजिर हूं, मैं घर आया अपनी बीवी से बताया, बच्चों से मशवरा किया, घर वाले तैयार नहीं थे, घर में मैं ने उनको मालिक के गुस्से से डराया, वहां से हुकुम हुआ है तो मानना चाहिए, मालिक ने औलाद दी है तो उसके हुकुम को मानना चाहिए।
अहमदः आपको यह बात ढोंग नहीं लग रही थी?
अब्दुर्रहमान: दिल में बात आई थी कि शायद यह भी नाटक और ढोंग है, मगर यह भी डर लगता था कि सचमुच मालिक का हुकुम होगा और न माना तो बर्बाद हो जाएंगे, कभी कभी दिल करता, फिर दिल को समझाता, अगर मेरे मालिक के नाम पर धोका है तो उसकी मुहब्बत में धोका खाना भी अच्छा है, बस इस लिए सब कुछ करते रहे।
अहमदः आगे क्या हुआ आप ने शादियां कर दीं?
अब्दुर्रहमान: मेरी लडकी छोटी थी और पीर बाबा की लडकी छ साल बडी थी, मगर उन्होंने कहा कि उपर से इशारा है कि पहले तुम्हारी लडकी की शादी हो, बीवी को खिदमत करनी पडती है, पहले पीर की लडकी से खिदमत कराना बे अदबी है, पहले अपनी बेटी को खिदमत के लिए पेश करो, शदी से पहले हमसे पीर बाबा ने कहा तुम मुरीद हो और में पीर हूं, अल्लाह की मुहब्बत में यह रिश्ता है, इसमें जो भी आप पीर बाबा को अपनी लडकी के जहेज में दोगे वो जन्नत में मिलेगा, मैं ने कहा अल्लाह की मुहब्बत में हर चीज मेरी जानिब से है, आप हुकुम करो, पीर बाबा ने कहा तुम्हारी बेटी मेवात आया जाया करेगी, उसके अलावा हमारे पास भी सवारी का साधन नहीं है, एक ए सी गाडी दो, मेरा मकान तुम्हारी लउकी के लायक नहीं है, मेवात में मकान दोबार बनवाना पडेगा, इसके अलावा और घर में जरूरत का सामान तुम्हारी बच्ची चाहे, हम तो फकीर आदमी हैं, हमारे पास तो बोरिए के अलावा कुछ भी नहीं, बहरहाल तकरीबन 28-29 लाख रूपए शादी में खर्च किए, एक साल बाद फिर मेरी लडकी की शादी का हुकुम उपर से आने की खबर दी, वो बोले तुम मुरीद हो मैं पीर हूं हम तुम्हें जन्नत और विलायत के दरजात जैसी कीमनी चीज दिलाते हैं, अगर मुरीद अपने पीर से जहेज वगेरा का मुतालबा करे तो मुरीदी टूट जाएगी, उनकी लडकी जो कपडे पहन कर आई सारे मैं ने ही बनाए, एक सूई भी वो जहेज में न लाई
अहमदः आप यह सब कुछ करते रहे आज कल अकल का जमाना है, और आप शहर के रहने वाले पढे लिखे ग्रेजवेट हैं, बच्चे पढे लिखे हैं, आपकी बीवी पढी लिखी हैं?
असल में दिल तो टूटता रहा, मगर बस वही बात कि मालिक के नाम पर धोका खाना भी एक मजा देता है, हम सब यह करते रहे।
अहमदः उन पीर साहब से अब भी ताल्लुक है?
अब्दुर्रहमान: असल में नव मुस्लिमों के इन्टरव्यू की किताब ‘‘नसीम-ए-हिदायत के झोंके‘‘ ने दिल तो हटा दिया था, मगर अब रिश्तों की वजा से जाहिरी तौर पर निभाते रहे। मगर अब जालिम ने मेरी बच्ची को सताना शुरू कर दिया है, पीर बाबा की बीवी ऐसी जालिम औरत है कि बस अल्लाह पनाह में रखे, अब उसके जुल्म से खुद उसका बेटा भी आजिज आ गया है, और उसने खुद से कहा कि इन धोकबाजों के चक्कर में न आएं। असल में अल्लाह ताला को हम पर तरस आया, उसके नाम पर धोका हमने चूंकि उसकी मुहब्बत में खाया था, इस लिए खुद पीर बाबा का बेटा हमारे लिए पीर बाबा के बन्धन से छुडाने का जरिया अना। पीर बाबा का बेटा जो हमारा दामाद है जावेद वो एक साथी के साथ हजरत से मिला, दूकान न चलने की शिकायत की, हजरत ने उसको किसी एक नमाज के बाद एक तस्बीह इस्तगफार और हर महीने में तीन दिन तीन महीने तब्लीगी जमात में लगाने का मशवरा दिया और फरमाया कि उम्मीद है कि इन्शा अल्लाह कारोबर चल जाएगा, वो नमाजें पढता था, उसने इस्तगफार नमाज के बाद पढने के लिए रात की नमाज ईशा पढना शुरू की और जमात में तीन रोज तीन महीन तक लगाए, तीसरे माह अमीर साहब ने चार माह का इरादा कर वा लिया, अल्लाह का शुक्र है वो जमात से जुड गया और वो आज हजरत से बेअत भी हुआ, उसने ज्यादा जोर दिया कि हम सब घर वाले हजरत से बेअत हो जाएं, यह अलग बात है कि अल्लाह ताला ने मुझे और मेरी बीवी को एक हफते पहले ही तौफीद दे दी, मेरी बीवी और बच्चे सब यह कह रहे थे कि डेडी असल में आज ऐसा लगा जैसे हम आजाद हो गए, हमारे घर में नव मुस्लिमों के इन्टरव्यू की किताब ‘‘नसीम-ए-हिदायत के झोंके‘‘ बहुत दिनो से बच्चे पढते हैं, मेरे दोनों बेटे उसके बाद से जुमेरात को मरकज भी जाने लगे हैं, अब मेरा भी जमात में वकत लगाने का इरादा है, हजरत ने भी मशवरा दिया है कि चार महीने लगा दूं।
अहमदः माशा अल्लाह वाकई आपकी बात भी खूब है कि आप को बंदर ने मुसलमान बना दिया है, अच्छा आपके इलम में है कि आपका यह इन्टरव्यू हमारे यहां मेगजीन ‘अरमुगान‘ में छपने के लिए है आप उसके पढने वालों को कोई सन्देश देगें?
पूर्व ब्रह्मण अब नव मुस्लिम अब्दुर्रहमान: मैं सन्देश या पैगाम क्या दे सकता हूं, सच्ची बात यह है कि मैं सिर्फ एक हफ्ते का मुसलमान हूं, मैं अपनी जिन्दगी के तजरबे से दो बातें कहता हूं कि बहेसियत मुसलमान हमारी जिम्मेदारी है कि हम शिर्क(अनेकश्वरवाद) के वास्ते से मजहबी गुलामी में जकडी इन्सानियत को एक अल्लाह के सामने खडा करके और उस सच्चे मालिक से जोड कर आजाद कराने की कोशिश करें। अगर हम ऐसा नहीं करेंगे तो अल्लाह ताला मजलूम और सिसकती इन्सानियत के गले से शिर्क (अनेकश्वरवाद) के फंदे और बेडियां काटने के लिए बंदरों को भेज कर यह काम करा लेंगे,
दूसरी बात यह भी दिल में आई है कि अल्लाह की मुहब्बत में उसको राजी करने की नियत से इतना धोका खाने और कुरबानी देने के बदले में अल्लाह ताला ने हम पर तरस खाया और खुद पीर बाबा के बेटे को उस चंगुल से निकाला और हमें निकलवाया। तो अगर उसके नाम पर इस्लामी और शरई क़ायदों को जान कर कुरबानी दी जाएगी तो वो अल्लाह कितना नवाजेंगे, इसका अन्दाजा मुश्किल है।
अहमदः आपने अपने खानदान पर काम का कुछ इरादा किया, आपने हजरत से इस सिलसिले में कुछ नहीं कहा?
अब्दुर्रहमान: ऐसा नहीं होसकता, पहली मुलाकात में सबसे पहले हजरत ने यह कहा कि यह ईमान आपका जब ईमान है, जब यह यकीन हो कि ईमान के बगैर निजात मुक्ति नहीं, और जब यह यकीन है तो आप कैसे इन्सान हैं कि आपके सामने आपके भाई बहन रिश्ते दार बेकार नष्ट हो जाएं। और यह ईमान और बढेगा, जब आप सारी इन्सानियत की फिकर करेंगे और खास तौर पर रिश्तेदारों और खानदान वालों का और भी ज्यादा हक है। अलहम्दु लिल्लाह मैं ने इरादा ही नहीं क्या बल्कि बात करना शुरू कर दी है, आपसे दुआ की दरखास्त है कि अल्लाह ताला की हिदायत से हमारे सब रिश्ते दार इस्लाम में आ जाएं।
अहमदः आमीन, बहुत बहुत शुक्रिया, अस्सलामु अलैकुम
अब्दुर्रहमान: वालैकुम सलाम
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साभार उर्दू मासिक पत्रीका ‘अरमुगान‘ जुलाई 2012
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جناب عبد الرحمن سے ایک گفتگو
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