Wednesday, 31 August 2016

माइकल जैक्सन के भाई ने इस्लाम अपनाया

   मशहूर पॉप सिंगर माइकल जेक्सन इस्लाम अपनाकर मिकाइल बन गए हें यह तो आप जानते हें लेकिन क्या आप जानते हैं माइकल के बड़े भाई जो खुद पॉप सिंगर और गिटारवादक थे. वे भी 1989 में मुस्लिम हो गए थे.
अमेरिका के मशहूर पॉप सिंगर माइकल जैक्शन के बड़े भाई जेरीमन जैक्शन ने 1989 में इस्लाम अपना लिया। इस्लाम कबूल करने के बाद जेरीमन जैक्शन का पहली बार इन्टरव्यू लन्दन के अरबी समाचार पत्र अल-मुजल्ला में प्रकाशित हुआ। इस इन्टरव्यू में उन्होंने इस्लाम अपनाने से जुड़े कई सवालों के जवाब दिए। यह उस वक्त का इन्टरव्यू है जब इनके छोटे भाई माइकल जैक्शन मुस्लिम नहीं हुए थे।
इस्लाम की तरफ आपका सफर कब और कैसे शुरू हुआ?
1989 की बात है, जब मैं अपनी बहन के साथ मध्यपूर्वी देशों की यात्रा पर गया था। बहरीन में रुकने पर हमारा गर्मजोशी के साथ स्वागत किया गया। मैं कुछ बच्चों से मिला और उनसे हल्की-फुल्की गपशप की। मैंने उनसे कुछ सवाल पूछे और उन मासूम बच्चों ने भी जिज्ञासापूर्वक मेरे से कई बातें पूछी। बातचीत के दौरान उन्होंने मुझसे मेरे धर्म के बारे में सवाल किया। मैंने उन बच्चों को बताया कि मैं ईसाई हूं। जब मैंने उनसे पूछा-आप किस धर्म के हो ? इस सवाल पर उनके चेहरे पर एक खास चमक नजर आई। वे सब एक साथ बोले-इस्लाम। उनके इस उत्साहित उत्तर ने मुझे अन्दर तक हिलाकर रख दिया। फिर वे मुझे इस्लाम के बारे में बताने लगे। उन बच्चों ने अपनी उम्र के मुताबिक टुकड़ों में मुझे इस्लाम से जुड़ी कुछ जानकारी दी। उनके बात करने के अन्दाज से मुझे लगा कि उन्हें इस्लाम पर गर्व है। इस तरह मेरा रुख इस्लाम की तरफ हुआ।

Tuesday, 30 August 2016

ईसाई धर्म प्रचारक बन गया कुरआन का मुरीद

ईसाई धर्म प्रचारक बन गया कुरआन का मुरीद

एक अहम ईसाई धर्म प्रचारक कनाडा के गैरी मिलर ने इस्लाम अपना लिया और वे इस्लाम के लिए एक महत्वपूर्ण संदेशवाहक साबित हुए। मिलर सक्रिय ईसाई प्रचारक थे और बाइबिल की शिक्षाओं पर उनकी गहरी पकड़ थी। वे गणित को काफी पसंद करते थे और यही वजह है कि तर्क में मिलर का गहरा विश्वास था।

एक अहम ईसाई धर्म प्रचारक कनाडा के गैरी मिलर ने इस्लाम अपना लिया और वे इस्लाम के लिए एक महत्वपूर्ण संदेशवाहक साबित हुए। मिलर सक्रिय ईसाई प्रचारक थे और बाइबिल की शिक्षाओं पर उनकी गहरी पकड़ थी। वे गणित को काफी पसंद करते थे और यही वजह है कि तर्क में मिलर का गहरा विश्वास था। एक दिन गैरी मिलर ने कमियां निकालने के  मकसद से कुरआन का अध्ययन करने का निश्चय किया ताकि वह इन कमियों को आधार बनाकर मुसलमानों को ईसाइयत की तरफ बुला सके और उन्हें  ईसाई बना सके। वे सोचते थे कि कुरआन चौदह सौ साल पहले लिखी गई एक ऐसी किताब होगी जिसमें रेगिस्तान और उससे जुड़े कहानी-किस्से होंगे। लेकिन उन्होंने कुरआन का अध्ययन किया तो वह दंग रह गए। कुरआन को पढ़कर वह आश्चर्यचकित थे। उन्होंने कुरआन के अध्ययन में पाया कि दुनिया में कुरआन जैसी कोई दूसरी किताब नहीं है। पहले डॉ. मिलर ने सोचा था कि कुरआन में पैगम्बर मुहम्मद सल्ल. के मुश्किलभरे दौर के किस्से होंगे जैसे उनकी बीवी खदीजा रजि. और उनके बेटे-बेटियों की मौत से जुड़े किस्से। लेकिन उन्होंने कुरआन में ऐसे कोई किस्से नहीं पाए बल्कि वे कुरआन में मदर मैरी के नाम से पूरा एक अध्याय देखकर दंग रह गए। 

अब मैं मुस्लिम के रूप में ही जीना चाहती हूं

अब मैं मुस्लिम के रूप में ही जीना चाहती हूं

वे कट्टर ईसाई थीं। लेकिन जब इस्लाम का अध्ययन किया और इस्लाम के रूप में सच्चाई सामने आई तो इसे अपना लिया।
पूर्व पादरी, मिशनरी, प्रोफेसर और धर्मशास्त्र में मास्टर डिग्री धारक खदीजा स्यू वेस्टन की जुबानी कि आखिर वे किस तरह इस्लाम की आगोश में आईं।
  यह तुम्हें क्या हो गया है? यह पहली प्रतिक्रिया होती थी जब इस्लाम अपनाने के बाद पहली बार मेरे क्लास के साथी, दोस्त और साथी पादरी मुझसे मिलते थे।
मुझे लगता मैं उनको दोष नहीं दे सकती थी। धर्म बदलने की वजह से मैं उनके लिए सबसे ज्यादा नापसंदीदा बन गई थी। पहले मैं प्रोफेसर, पादरी, चर्च प्लांटर और मिशनरी थी। धर्म के मामले में मैं बेहद कट्टर थी।    बात तब की है जब मैंने पादरियों की एक विशेष शिक्षण संस्था से ग्रेजुएशन के बाद धर्मशास्त्र में मास्टर डिग्री ली ही थी। इसके छह महीने बाद ही मेरी मुलाकात एक महिला से हुई जो सऊदी अरब में काम करती थी और वह इस्लाम अपना चुकी थी। मैंने उस महिला से जाना कि इस्लाम में महिलाओं को किस तरह की हैसियत और अधिकार दिए गए हैं? उसका जवाब जानकर मुझे बेहद हैरत हुई। दरअसल मैं नहीं जानती थी कि इस्लाम में महिलाओं को इतना ऊंचा मुकाम दिया गया है। 

इस्लाम ने मुझे नैतिक सम्बल दिया

अगर मैं इस्लाम ना अपनाता तो एक खिलाड़ी के रूप में इतना कामयाब ना होता। इस्लाम ने मुझे नैतिक सम्बल दिया।

करीम अब्दुल जब्बार अमेरिका के मशहूर बास्केटबॉल खिलाड़ी

करीम अब्दुल जब्बार अमेरिकी नेशनल बास्केटबॉल एसोसिएशन के छह बार बेशकीमती खिलाड़ी के रूप में चुने गए। उन्हें बास्केटबॉल का हर समय महान खिलाड़ी माना गया। वे अपन हरलेम के बाशिन्दे थे और फरडीनेन्ड लेविस एलसिण्डर के रूप में पैदा हुए। बास्केटबॉल में एक नया शॉट स्काई हुक ईजाद करने वाले करीम अब्दुल जब्बार ने इस शॉट के जरिए बास्केटबॉल खेल में अपनी खास पहचान बनाई।सबसे पहले करीम अब्दुल जब्बार ने इस्लाम हम्मास अब्दुल खालिस नामक एक मुस्लिम व्यक्ति से सीखा। खालिस ने उन्हें बताया कि हर एक को चाहे वह नन हो,संन्यासी,अध्यापक,खिलाड़ी अथवा टीचर,सभी को संजीदगी से ईश्वरीय आदेश पर गौर करना चाहिए। इस बात पर ध्यान देने के बाद वे खालिस क ी इस्लामिक बातों पर चिंतन करने लगे,साथ ही उन्होने कुरआन का अध्ययन करना शुरू कर दिया। कुरआन अच्छी तरह समझने के लिए उन्होने बेसिक अरबी सीखी। उन्होने इस्लाम को अच्छी तरह सीखने के मकसद से १९७३ में सऊदी अरब और लीबिया का सफर किया। वे सर्वशक्तिमान ईश्वर में अटूट भरोसा करते हैं और साथ ही उनका पुख्ता यकीन है कि कुरआन अल्लाह का आखरी आदेश है और मुहम्मद सल्ललाहो अलैहेवसल्लम अल्लाह के आखरी पैगम्बर हंै।

मुस्लिम औरतों की जीवन-शैली पसन्द है

अंग्रेजी के पाठकों में कमला दास और मलयालम के पाठकों में माधवी कुट्टी के नाम से जानी जाने वाली मशहूर लेखिका और कवयित्री ने दिसम्बर 1999 ई. में इस्लाम कबूल करके अपना नाम सुरैया रख लिया तो केरल के साहित्य, समाज, धर्म और संस्कृति के क्षेत्रों में जैसा तूफान आया, वैसा वहां के इतिहास में किसी एक व्यक्ति के धर्म बदलने से नहीं आया था।

कमला सुरेया ने आखिर इसलाम क्यों कबूला 
 पढिये उन्ही की जुबानी 
 आपने इस्लाम कबूल करने का फैसला कब किया ?
सुरैया : ठीक-ठीक समय तो याद नहीं। मैं समझती हूं, यह 27 वर्ष पहले की बात है। 
आपने इतने लम्बे समय तक इन्तजार क्यों किया ? 
सुरैया : सत्तर के दशक में, जब मैंने इस पर सबसे पहले अपने पति से बात की तो उन्होंने इन्तजार करने को कहा। उन्होंने मुझे इस्लाम पर किताबें पढऩे की सलाह दी। मैंने दोबारा 1984 ई। के लोकसभा चुनावों से पहले धर्म बदलने के बारे में सोचा था। लेकिन उस समय मेरे सभी बच्चों की न तो शादी हुई थी और न वे किसी अच्छे काम पर लगे थे। मैं अपने निर्णय का प्रभाव उनकी जिन्दगी पर नहीं डालना चाहती थी। अब वे सभी अच्छी तरह सेटल्ड हो गए हैं और खुश हैं। इसलिए मैंने अब इस्लाम कबूल करने का ऐलान किया। 

एक पत्रकार का इस्लाम कबूल करना

इस्लाम कबूल करने के पहले अब्दुल्लाह अडियार डी।एम.के. के प्रसिद्ध समाचार-पत्र 'मुरासोलीÓ के 17 वर्षो तक संपादक रहे। डी.एम.के. नेता सी.एन. अन्नादुराई जो बाद में तमिलनाडु के मुख्यमंत्री भी रहे, ने जनाब अडियार को संपादक पद पर नियुक्त किया था। जनाब अडियार ने 120 उपन्यास, 13 नाटक और इस्लाम पर 12 पुस्तकों की रचनाएं की।
जनाब अब्दुल्लाह अडियार महरहूम तमिल भाषा के प्रसिद्ध कवि, प्रत्रकार, उपन्यासकार और पटकथा लेखक थे। उनका जन्म 16 मई 1935 को त्रिरूप्पूर (तमिलनाडु) में हुआ। प्रारंभिक शिक्षा कोयम्बटूर में हुई। वे नास्तिक थे, लेकिन विभिन्न धर्मों की पुस्तकें पढ़ते रहते थे।किसी पत्रकार और साहित्यकार को विभिन्न धर्मों के बारे में भी जानकारी रखनी पड़ती है। जनाब अब्दुल्लाह अडियार अध्ययन के दौरान इस परिणाम पर पहुंचे कि इस्लाम ही सच्चा धर्म है और मनुष्य के कल्याण की शिक्षा देता है। आखिरकार 6 जून 1987 ई। को वे मद्रास स्थित मामूर मस्जिद गये और इस्लाम कबूल कर लिया। इस्लाम कबूल करने के पहले वे डी।एम।के। के प्रसिद्ध समाचार-पत्र 'मुरासोलीÓ के 17 वर्षो तक संपादक रहे।

ईसाई पादरी अपना रहे हैं इस्लाम

साई पादरी अपना रहे हैं इस्लाम

शायद आप यकीन ना करें लेकिन हकीकत यही है कि इस्लाम की गोद में आने वाले लोगों में एक बड़ी तादाद ईसाई  पादरियों की है। यह किताब इसी सच्चाई को आपके सामने पेश करती है। यह ईसाई किसी एक मुल्क या इलाके  विशेष के नहीं है, बल्कि दुनिया के कई देशों के हैं। अंगे्रजी की इस किताब में 18  ईसाई पादरियों का जिक्र हैं जिन्होंने सच्चे दिल से इस्लाम की सच्चाई को कुबूल किया और ईसाईयत को छोड़कर इस्लाम को गले लगा लिया।

इस किताब में इनके वे इंटरव्यू शामिल किए गए हैं जिसमें उन्होंने बताया कि आखिर उन्होंने इस्लाम क्यों अपनाया। उनकी नजर में इस्लाम में ऐसी क्या खूबी थी कि उन्होंने पादरी जैसे सम्मानित ओहदे का त्यागकर इस्लाम को अपना लिया। 
पुस्तक  में शामिल ये अट्ठारह पादरी ग्यारह  देशों  के हैं। इनमें शामिल हैं अमेरिका के यूसुफ एस्टीज, उनके  पिता, मित्र पेटे, स्यू वेस्टन, जैसन कू्रज, राफेल नारबैज, डॉ. जेराल्ड डिक्र्स, एम. सुलैमान,कनाडा के डॉ. गैरी मिलर, ब्रिटेन के इदरीस तौफीक, ऑस्ट्रेलिया के सेल्मा ए कुक, जर्मनी के डॉ. याह्या ए.आर. लेहमान, रूस के विचैसलव पॉलोसिन, इजिप्ट के इब्राहीम खलील, स्पैन के एंसलम टोमिडा, श्रीलंका के जॉर्ज एंथोनी , तंजानिया के मार्टिन जॉन औरब्रूंडी की मुस्लिमा। 
इस्लाम अपनाने वाले ये पादरी वे हैं जिन्होंने हाल ही के दौर में इस्लाम को अपनाया। पढि़ए इस किताब को और जानिए इस्लाम की सच्चाई इन पूर्व पादरियों की जुबान से।इस किताब को यहां पेश करने का मकसद इस्लाम से जुड़ी लोगों की गलतफहमियां दूर करना और इस्लाम की सच्चाई को बताना है, मकसद किसी भी मजहब का मजाक उड़ाना नहीं है।

ईसाई धर्मगुरु मुसलमान क्यों बन गए?

'पादरियों ने  अपनाया इस्लाम' किताब में दुनिया के सात देशों के ग्यारह ईसाई पादरियों और धर्मप्रचारकों की इस्लाम अपनाने की दास्तानें हैं। गौर करने वाली बात है कि ईसाईयत में गहरी पकड़ रखने वाले ये ईसाई धर्मगुरु आखिर इस्लाम अपनाकर मुसलमान क्यों बन गए? आज जहां इस्लाम को लेकर दुनियाभर में गलतफहमियां हैं और फैलाई जा रही हैं, ऐसे में यह किताब मैसेज देती है कि इस्लाम वैसा नहीं है जैसा उसका दुष्प्रचार किया जा रहा है। पुस्तक पढऩे पर आपको मालूम होगा कि ये ईसाई पादरी अपने धर्म के प्रचार में जुटे थे और इनमें से कई तो ऐसे थे जो मुसलमानों को ईसाईयत की तरफ दावत दे रहे थे। लेकिन इस्लाम के रूप में जब सच्चाई इनके सामने आई तो इन्होंने इसे अपना लिया।  आज इस्लाम कुबूल करने वालों में एक बड़ी तादाद ईसाई पादरियों और धर्मप्रचारकों की है। ईसाई धर्मज्ञाताओं का इस्लाम को गले लगाने के बारे में कुरआन चौदह सौ साल पहले ही उल्लेख कर चुका है। गौर कीजिए कुरआन की इन आयतों पर -
तुम ईमान वालों का दुश्मन सब लोगों से बढकर यहूदियों और मुशरिकों को पाओगे और ईमान वालों के लिए मित्रता में सबसे निकट उन लोगों को पाओगे जिन्होंने कहा कि -हम ईसाई हैं।  यह इस कारण कि ईसाईयों में बहुत से धर्मज्ञाता और संसार त्यागी संत पाए जाते हैं। और इस कारण कि वे अहंकार नहीं करते। जब वे उसे सुनते हैं जो रसूल पर अवतरित हुआ है तो तुम देखते हो कि उनकी आखें आंसुओं से छलकने लगती हैं । इसका कारण यह है कि उन्होंने सच्चाई को पहचान लिया है।  वे कहते हैं-हमारे रब, हम ईमान ले आए। इसलिए तू हमारा नाम गवाही देने वालों में लिख ले।  
                                                               (5 : 82-83)
यहां पेश हैं किताब के कुछ अंश-
1 ब्रिटेन के अन्य लोगों की तरह पहले मुसलमानों को लेकर मेरा भी यही नजरिया था कि मुसलमान आत्मघाती हमलावर, आतंकवादी और लड़ाकू होते हैं। दरअसल ब्रिटिश मीडिया मुसलमानों की ऐसी ही तस्वीर पेश करता है। इस वजह से मेरी सोच बनी हुई थी कि इस्लाम तो उपद्रवी मजहब है। काहिरा में मुझो एहसास हुआ कि इस्लाम तो बहुत ही  खूबसूरत धर्म है-  

सोच-समझकर इस्लाम चुना

आमिना थॉमस
(भूतपूर्व ‘अन्नम्मा थॉमस’)
ईसाई पादरी की बेटी
केरल, भारत
क़ुरआन और बाइबल के तुलनात्मक अध्ययन और सच्चे दिल से अल्लाह के सामने दुआ ने इस्लाम की ओर झुके हुए मेरे दिल को ताक़त दी और मैं अन्दर ही अन्दर मुसलमान हो गई।
  मैं दक्षिणी भारत के एक प्रोटेस्टेंट ईसाई घराने में पैदा हुई और पली-बढ़ी। लेकिन अब मैं बहुत ख़ुश हूं कि मैं एक मुस्लिम औरत हूं। केवल संयोगवश मुसलमान नहीं बनी, बल्कि ख़ूब सोच-समझकर मैंने इस्लाम का चयन किया है। संसार के पालनहार, जिसने सही रास्ते अर्थात् इस्लाम की ओर मेरा मार्गदर्शन किया, उसका मैं जितना भी शुक्र अदा करूं, कम है। मेरा इस्लाम क़बूल करना विभिन्न धर्मों के तुलनात्मक अध्ययन का परिणाम है। 

इस्लाम में है अमेरिकी रंग-भेद की समस्या का समाधान: मेलकॉम एक्स

इस्लाम में है अमेरिकी रंग-भेद की समस्या का समाधान: मेलकॉम एक्स

यह एक अफ्रो-अमेरिकन  जाने-माने क्रांतिकारी मेलकॉम एक्स की इस्लाम का अध्ययन करने और फिर इसे अपनाने  की दास्तां है। मेलकॉम एक्स ने अमेरिका की रंग-भेद की समस्या का समाधान इस्लाम में पाया। मेलकॉम एक्स कहता था-मैं एक मुसलमान हूं  और सदा रहूंगा। मेरा धर्म इस्लाम है।

मशहूर मुक्केबाज मुहम्मद अली के साथ मेलकॉमजाने-माने और क्रांतिकारी शख्स मेलकॉम एक्स का  जन्म 19 मई 1925 को नेबरास्का के ओहामा में हुआ था। उसके माता-पिता ने उसको मेलकॉम लिटिल नाम दिया था। उसकी मां लुई नॉर्टन घरेलू महिला थी और उसके आठ बच्चे थे। मेलकॉम के पिता अर्ल लिटिल स्पष्टवादी बेपटिस्ट पादरी थे। अर्ल काले लोगों के राष्ट्रवादी नेता मारकस गेर्वे के कट्टर समर्थक थे और उनके कार्यकर्ता के रूप में जुड़े थे। उनके समर्थक होने की वजह से अर्ल को गोरे लोगों की तरफ से धमकियां दी जाती थीं, इसी वजह से उन्हें दो बार परिवार सहित अपने रहने की जगह बदलनी पड़ी। मेलकॉम उस वक्त चार साल के थे। गोरे लोगों ने अर्ल के लॉन्सिग, मिशिगन स्थित घर को जलाकर राख कर दिया और इस हादसे के ठीक दो साल बाद अर्ल लिटिल का कटा-पिटा शव शहर के ट्रॉली-ट्रेक के पार पाया गाया। इस हादसे के बाद उनकी पत्नी और मेलकॉम की मां लुई का मानसिक संतुलन गड़बड़ा गया और उसे मनोचिकित्सालय में भर्ती कराना पड़ा। मेलकॉम की उम्र उस वक्त छह साल थी। ऐसे हालात में लुई के इन आठ बच्चों को  अलग-अलग अनाथालय की  शरण लेनी पड़ी।

मेलकॉम बचपन से ही चतुर और होशियार विद्यार्थी था। वह हाई स्कूल में क्लॉस में टॉप रहा। लेकिन जब उसने अपने प्रिय अध्यापक से वकील बनने की अपनी मंशा जाहिर की तो वह टीचर बोला-तुम जैसे नीग्रो स्टूडेंट के लिए वकील बनने के सपने देखना सही नहीं है। इसी सोच के चलते मेलकॉम की पढ़ाई में रुचि कम हो गई  और पंद्रह साल की उम्र में मेलकॉम ने पढ़ाई छोड़ दी। इस बीच मेलकॉम गलत लोगों की संगत में फंस गया और मादक पदार्थों के कारोबारियो से जुड़ गया। गलत संगत के चलते ही बीस साल की उम्र में धोखाधड़ी और चोरी के एक मामले में उसे सात साल की सजा हुई। जेल से बाहर आने पर उसने नेशन ऑफ इस्लाम के बारे में जाना। नेशन ऑफ इस्लाम से जुड़कर उसने इसके संस्थापक अलीजाह मोहम्मद की शिक्षाओं का अध्ययन किया और इसी के चलते 1952 में उसमें काफी बदलाव आ गया।

                                                                 द नेशन ऑफ इस्लाम
जेल से बाहर आने के बाद मेलकॉम डेटसेट में द नेशन ऑफ इस्लाम की गतिविधियों में हिस्सा लेने लगा। अलीजाह मोहम्मद ने भी उसे बहुत कुछ सिखाया। मेलकॉम एक्स की कोशिशों की वजह से देश में इस संस्था का विस्तार हुआ। इसी के चलते मेलकॉम एक्स की छवि अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर बन गई। कई बड़े टीवी चैनल और पत्र-पत्रिकाओं में उनके इन्टरव्यू छपे और कई विश्वविद्यालयों में उन्होंने लेक्चरदिए। मेलकॉम की आवाज में आकर्षण था, प्रभाव था। अपने प्रभावशाली भाषणों के जरिए उन्होंने काले लोगों पर हो रहे जुल्म को बयान किया और इसके लिए गोरे लोगों को जिम्मेदार ठहराया। 

अमेरिका में कालों के साथ हुए अन्याय के खिलाफ मेलकॉम के शब्द अक्सर डंक मारते लेकिन यह भी सच्चाई है कि नेशन ऑफ इस्लाम की विचारधारा और जातिवादी सोच के चलते किसी गोरे शख्स द्वारा की गई सच्ची और अच्छी कोशिश को भी वे स्वीकार करने को तैयार नहीं होते थे।
मेलकॉम बारह साल तक अपने भाषणों में यही कहता रहा कि गोरा आदमी शैतान है और अलीजाह मोहम्मद ईश्वर का पैगम्बर है। दुख की बात यह है कि आज भी मेलकॉम एक्स की जिंदगी के इसी पार्ट को ज्यादा हाई लाइट किया जाता है जबकि सच्चाई यह है कि इसके बाद मेलकॉम की छवि बिल्कुल ही इस सोच और विचारधारा से अलग हटकर बन गई थी। उसका नजरिया कुछ इस तरह बन गया था जिसमें अमेरिकी लोगों के लिए उसका महत्वपूर्ण संदेश था।
                                                            सच्चे इस्लाम की ओर कदम
12 मार्च 1964 को मेलकॉम एक्स ने अनबन के चलते अलीजाह मोहम्मद की संस्था द नेशन ऑफ इस्लाम को छोड़ दिया। उस वक्त मेलकॉम की उम्र 38 साल थी। मेलकॉम कहते हैं-नेशन ऑफ इस्लाम में मैं उस शख्स की तरह महसूस करता था जो पूरी तरह किसी दूसरे के नियंत्रण में सोया हुआ था। अब मुझे एहसास हुआ है कि अब मैं जो  सोच रहा हूं , खुद सोच रहा हूं। पहले किसी और की देखरेख में बोलता था, अब अपने दिमाग से सोचता हूं।
मेलकॉम कहते हैं कि पहले जब मैं नेशन ऑफ इस्लाम से जुड़ा था, उस वक्त यूनिवर्सिटी-कॉलेज के मेरे भाषण के बाद कई लोग मुझसे मिलने आते थे। वे अपने आपको अरब, मध्य एशिया या उत्तरी अफ्रीका के मुसलमान  बताते थे, जो यहां पढऩे या घूमने आए हुए थे। उनका यह यकीन था कि अगर मेरे सामने इस्लाम का सही रूप पेश किया गया तो मैं इसे अपना लूंगा। लेकिन अलीजाह मोहम्मद से जुड़े रहने की वजह से मैं उसी के विचारों को खुद पर हावी रखता था। लेकिन इस्लाम को सही रूप में समझने और इसे अपनाने के प्रस्ताव कई बार आने के बाद मैंने अपने आप से सवाल किया-अगर कोई शख्स अपने धर्म के मामले में खुद को सच्चा समझता है तो आखिर उस धर्म को अच्छे तरीके से समझने में उसे हिचकिचाहट क्यों होनी चाहिए?दरअसल कई मुसलमानों ने मुझसे कहा था कि मुझे डॉ. महमूद युसूफ शाहवर्बी से मुलाकात करनी चाहिए। और फिर एक दिन ऐसा ही हुआ। एक पत्रकार ने हम दोनों की मुलाकात कराई। शाहवर्बी ने मुझे बताया कि वे अखबारों में मेरे बारे में पढ़ते रहे हैं। हमारे बीच लगभग पन्द्रह-बीस मिनट ही बात हुई, दरअसल हम दोनों को ही अलग-अलग प्रोग्रामों में शरीक जो होना था। विदा होने से पहले महमूद यूसुफ ने जो एक बात बताई वह मेरे दिल और दिमाग में गहरी बैठ गई। उन्होंने कहा-कोई शख्स उस वक्त तक मोमिन (पूरा ईमान और आस्था वाला) नहीं हो सकता जब तक वह अपने भाई के लिए भी वही कुछ पसंद करे जो अपने खुद के लिए पसंद करता है। (यह मुहम्मद सल्ल. का कथन है, बुखारी, मुस्लिम)
                                                            हज का सफर जिसने उसकी जिंदगी बदल दी
नमाज अदा करते मेलकॉम एक्सहज के सफर का मेलकॉम एक्स की जिंदगी पर बेहद असर पड़ा। वे अपनी हज यात्रा का उल्लेख करते हुए बताते हैं- 'हवाई अड्डे पर हजारों लोग थे, जो जेद्दा जा रहे थे। उनमें से हर शख्स एक ही तरह के कपड़े  पहने हुए था, जिससे यह पहचाना ही नहीं जा सकता था कि इनमें से कौन अमीर है और कौन गरीब। मैं भी इसी परिधान में था। यह पोशाक पहनने के बाद हम सब लोग रुक-रुक कर-लब्बेक अल्लाह हुम्मा लब्बैक (ओ मेरे मालिक मैं हाजिर हूं) पुकारने लगे। जेद्दा जाने वाला हमारा यह हवाई जहाज काले, गोरे, भूरे, पीले लोगों से भरा था। ये सभी एक अल्लाह को मानने वाले और सभी बराबरी का सम्मान देने वाले लोग थे।
मेलकॉम कहते हैं- मेरी जिंदगी का यह वह पल था जब मैंने गोरे लोगों का नए सिरे से मूल्यांकन करना शुरू किया। यहां मैंने महसूस किया कि यहां गोरे आदमी का अर्थ सिर्फ उसका रंग गोरा होना है जबकि अमेरिका में गोरे के मायने है काले लोगों के प्रति गलत मानसिकता और भेदभावपूर्ण व्यवहार करने वाला शख्स। लेकिन मैंने महसूस किया मुस्लिम जगत में गोरे लोग इंसानी भाईचारे में ज्यादा विश्वास रखते थे। उसी दिन से गोरे लोगों के प्रति मेरे पूर्वाग्रह और मानसिकता बदलना शुरू हो गई है। हज के दौरान मैंने देखा कि वहां दसों हजारों लोग थे जो दुनिया के विभिन्न हिस्सों से आए हुए थे। यहां  सभी रंगों के लोग थे। गोरे भी और काली चमड़ी वाले अफ्रीकी भी। नीली आंखों वाले लोग भी। और यह सब हज के एक ही तरीके को अंजाम देने में जुटे थे। गोरे और काले लोगों की ऐसी एकता और ऐसा जुड़ाव अमेरिका में रहने के दौरान मेरी कल्पना में भी संभव नहीं था। मुझे महसूस हुआ कि अमेरिका के बाशिंदो को चाहिए कि वे इस्लाम का अध्ययन करें और इसे समझे क्योंकि सिर्फ यही एकमात्र धर्म है जो अमेरिकी समाज के नस्लीय और जातीय भेदभाव को मिटा सकता है। अमेरिका की इस बड़ी समस्या का समाधान इस्लाम में है।
मैं मुस्लिम दुनिया की अपनी यात्रा में ऐसे लोगों से मिला, उनके साथ बैठकर खाना खाया, उनसे मेल जोल रखा जो अमेरिका में गोरे गिने जाते हैं- लेकिन इस्लाम ने इनके  दिल से नस्लीय मानसिकता को हटा दिया था। मैंने इससे पहले विभिन्न रंगों के इंसानों के बीच ऐसा सच्चा और खरा भाईचारा नहीं देखा था।'
                                          मेलकॉम का अमेरिका के लिए नया सपना
मार्टिन लूथर किंग के साथ मेलकाकॉममेलकॉम कहते हैं- 'हज के इस माहौल को देखकर हर घंटे अमेरिका में श्वेत और अश्वेत लोगों के बीच होने वाली घटनाओं के मामले में मुझे एक नई आध्यात्मिक रोशनी नजर आने लगी। नस्लीय भेदभाव के खात्मे का समाधान नजर आने लगा। वैसे तो जातीय दुश्मनी के लिए अमेरिका के अश्वेत लोगों को दोषी ठहराया जा सकता है लेकिन ये अश्वेत तो लगभग चार सौ सालों से गोरे लोगों द्वारा किए जा रहे जुल्म का प्रतिकार ही तो कर रहे हैं। लेकिन यह जातीय द्वेष अमेरिका को खुदकुशी के रास्ते पर ले जा रहा है।
मुझे पूरा यकीन है कि यूनिवर्सिटी और कॉलेजों में पढऩे वाली अमेरिका की नौजवान पीढ़ी इस आध्यात्मिक सच्चाई को स्वीकारेगी और सच्चाई की इस राह पर चलेगी।'
मेलकॉम कहते हैं-'अमेरिका को विनाश के रास्ते पर ले जाने वाला जातीय द्वेष और नस्लीय सोच से बचने का मात्र एक ही रास्ता है और यह है इस्लाम। मेरा यह मानना है कि ईश्वर ने गोरे लोगों को अश्वेतों पर जुल्म करने के अपराध करने का पश्चाताप करने का आखिरी मौका दिया है। ठीक उसी तरह जिस तरह ईश्वर ने फिरऔन को आखरी मौका दिया था। लेकिन फिरऔन ने लोगों पर जुल्म करना चालू रखा और इनको इंसाफ देने से इंकार कर दिया। और हम जानते ही हैं कि फिरऔन का अंत विनाश के रूप में हुआ।'
अपने इस सफर के बारे में मेलकॉम आगे बताते हैं- 'इस दौरान डॉ. आजम के साथ मेरी जो दावत का अनुभव रहा, वह भी यादगार रहा। इस मौके पर जो बातचीत हुई उसमें इस्लाम से जुड़ी कई बातें सीखने को मिली। डॉ. आजम ने मुझे पैगम्बर मुहम्मद सल्ल. के रिश्तेदार और उनके साथियों के बारे में बताया जिनमें गोरे और काले दोनों तरह के लोग शामिल थे।
                                 एकेश्वरवाद से ही इंसानी एकता और भाईचारा
मेलकॉम एक्स ने हज के दौरान ही हरलेम में बनी नई मस्जिद के साथियों को पत्र लिखना शुरू कर दिया और पत्र में ही उनसे कहा कि उनके इन पत्रों की कॉपियां करके प्रेस में भी दी जाए। अपने पत्र में मेलकॉम एक्स ने लिखा- 'मैंने इस पाक सरजमीं मक्का में जैसी सच्ची मेहमाननवाजी और भाईचारा देखा वैसा अन्य कहीं नहीं देखा। यह सरजमीं जहां पैगम्बर इब्राहीम अलै. ने काबा बनाया, मुहम्मद सल्ल. और अन्य  दूसरे पैगम्बरों पर ईश्वरीय आदेश अवतरित हुए। हर रंग और जाति के लोगों में अपनत्व और भाईचारे का भाव और व्यवहार देखकर मैं तो दंग रह गया हूं।
नमाज अदा करते मेलकॉम एक्सइस पवित्र सफर में जो कुछ मैंने देखा और महसूस किया, उसके बाद मैं अपनी पुरानी विचारधारा और मानसिकता में तब्दीली लाना चाहता हूं। यह मेरे लिए ज्यादा मुश्किल नहीं है क्योंकि मैं अपने कुछ विचारों में दृढ होने के बावजूद सच्चाई को स्वीकार करने के लिए तैयार रहता हूं। मैं हठी और जिद्दी नहीं हूं बल्कि सच्चाई को स्वीकारने और इसे अपनाने का लचीलापन मेरे स्वभाव में शामिल है।
पिछले ग्यारह दिनों में मुस्लिम जगत के बीच रहने के दौरान साथी मुसलमानों जिनमें काले लोग, नीली आंखों वाले और गोरी चमड़ी वाले शमिल थे, सबने साथ बैठकर एक थाली में खाना खाया, एक गिलास में पानी पीया। एक कालीन पर सोए और उसी कालीन पर सबने साथ नमाज अदा की। मैंने गोरे मुसलमानों की बातों और व्यवहार में सच्चाई और अपनापन देखा, वही अपनत्व और सच्चाई मैंने नाइजीरिया, सूडान और घना के काले मुसलमानों में देखी। यह सब एक ही अल्लाह की इबादत करते थे और आपस में एक-दूसरे को भाई मानते थे। एक अल्लाह ही के सब बंदे हैं, इसी सोच ने इनके  बीच के फर्क और नस्लीय अभिमान को दूर कर दिया था।'
 मेलकॉम आगे कहते हैं- 'यहां का भाईचारा, समानता और एक दूसरे से जुड़ाव को देखकर मैंने महसूस किया कि अगर अमेरिका के गोरे एक अल्लाह पर यकीन कर लें और इसे मान लें तथा वे सच्ची इंसानी एकता के भाव को अपना लें तो मेरा मानना है कि वे अश्वेत लोगों के  अधिकारों का हनन करने और उन पर जुल्म करना बंद कर देंगे। अमेरिका इस समय नस्लीय और रंगभेद के कैंसर से पीडि़त है जो लाइलाज नजर आता है। अपने आपको ईसाई कहने वाले इन गोरे लोगों को इस नस्लीय बीमारी के इस व्यावहारिक और साबित हो चुके हल को  अपने दिल से अपना लेना चाहिए क्योंकि यही समय है अमेरिका को आने वाले विनाश से बचाने का। ऐसी ही नस्लीय समस्या तो जर्मनी के विनाश का कारण बन चुकी है।'
मेलकॉम कहते हैं- 'वे मेरे से पूछते हैं कि हज के दौरान किस बात ने आपको सबसे ज्यादा प्रभावित किया? मैंने जवाब दिया-भाईचारा। सभी जगहों और सभी रंगों के लोग एक जगह एक हो गए। इसने मुझे सबूत दे दिया अल्लाह के एक होने का। हज से जुड़ा हर मामला इंसानी भाईचारा व एकता और एक ईश्वर पर जोर देता है।'
मेलकॉम एक्स हज से अलहाज मलिक अल शाहबाज बनकर लौटे। वे अब सच्चे मुसलमान बन गए थे। उनके अंदर एक नई आध्यात्मिक चेतना जागृत हो गई थी।
                                                      हज से लौटने के बाद
मेलकॉम एक्स के अमेरिका लौटने पर मीडिया उनके इस बदलाव को जानने को लेकर बेहद उत्सुक था। अमेरिका मीडिया को यकीन नहीं हो रहा था कि जो शख्स लम्बे समय तक गोरे लोगों के खिलाफ अपने भाषण में जहर उगलता हो, आज वही उन गोरों को भाई कहकर पुकार रहा है। मीडिया के इस सवाल पर मेलकॉम एक्स  ने कहा- ' आप मुझसे पूछ रहे हैं कि क्या मैंने गोरे लोगों को भाई मान लिया है? मैंने कहा-जैसा कि मैंने हज के दौरान मुस्लिम जगत में देखा और महसूस किया उससे मेरी सोच का दायरा काफी बढ़ा है। वहां मुझे गोरे मुसलमानों का स्नेह, अपनत्व और भाईचारा मिला। उनकी नजर में रंग और नस्ल कोई मायने नहीं रखता।
मेरी इस हजयात्रा ने मेरे दिमाग के पट खोल दिए हैं। इससे मुझे एक नई दृष्टि मिली है। मैंने हज के दौरान जो देखा, ऐसा मैंने पिछले 39 सालों में अमेरिका में नहीं देखा। मैंने वहां सभी जातियों और रंगों वाले लोगों में चाहे वे नीली आंखों वाले हों या काली चमड़ी वाले अफ्रीकी, सभी में भाईचारा और अपनत्व का जज्बा देखा। आपस में जुड़ाव और एकता देखी। सब मिलकर एक जगह और एक साथ इबादत करते थे। पहले मैं सारा दोष गोरे लोगों के सिर मढ़ देता था लेकिन अब मैं भविष्य में इसका मुजरिम नहीं बनूंगा, क्योंकि अब मैं जान गया हूं कि कुछ गोरे खरे हैं और उनमें अश्वेतों के प्रति भाईचारा और अपनत्व का भाव है। सच्चे इस्लाम ने मुझे सिखाया है कि अश्वेतों के मामले में सभी गोरों को दोषी ठहराना गलत है, ठीक इसी तरह गोरों द्वारा सभी अश्वेतों को दोषी ठहराना गलत है।'
 काले लोग मेलकॉम को अपना लीडर मानते थे, मेलकॉम ने अब जो नया संदेश दिया वह संदेश उस संदेश के विपरीत था जो वह नेशन ऑफ इस्लाम के प्रचारक के रूप में देता था।
मेलकॉम ने मीडिया से कहा-'सच्चे इस्लाम से मैंने सीखा है कि इस्लाम के धार्मिक, राजनैतिक, आर्थिक, मनोवैज्ञानिक संदेश इंसान और समाज को पूर्णता प्रदान करते हैं। मैंने अपने हरलेम स्ट्रीट के बाशिंदों से कहा है कि पूरी मानव जाति जब इस दुनिया के अकेले पालनहार के सामने खुद को समर्पित कर देगी और उसी के बताए नियमों के मुताबिक अपनी जिंदगी गुजारने लगेगी तब ही यह इंसानियत शांति को पहुंचेगी। शांति की बातें तो बहुत की जाती हैं लेकिन इसके लिए कारगर कोशिशें नहीं की जाती।
                                              ...और उसे मौत की नींद सुला दिया गया
मेलकॉम एक्स के इस नए विश्वव्यापी संदेश से अमरीकी प्रशासन में खलबली मच गई। मेलकॉम का यह संदेश ना केवल काले लोगों के लिए था बल्कि वह सभी जातियों और सभी रंगों के बुद्धिजीवियों से  अपील कर रहा था और अपनी बात रख रहा था।
पूर्वाग्रह से ग्रसित अमेरिकी मीडिया ने मेलकॉम एक्स के खिलाफ एक मुहिम चलाई और मीडिया ने उसे एक राक्षस के रूप में पेश किया और प्रचारित किया कि वह तो हिंसा की  पैरवी कर रहा है , वह जंगजू लड़ाका था।
मेलकॉम जानते थे कि वे कई गिरोहों के निशाने पर हैं। इस सबके बावजूद वे अपने मैसेज को फैलाते रहे और जो कुछ वे कहना चाहते उससे डरते नहीं थे। अपनी आत्मकथा के अंत में मेलकॉम एक्स लिखते हैं-'मैं जानता हूं कि कई समाजों ने अपने ही उन रहनुमाओं का कत्ल कर दिया जो उस समाज में अच्छा बदलाव लाना चाहते थे। यदि मेरी कोशिशों और सच्चाई की इस रोशनी से अमेरिका के शरीर पर बनी नस्लीय भेदभाव रूपी कैंसर की गांठ का इलाज होता है और यदि इस जद्दोजहद में मैं मारा भी जाऊं तो मैं इस अच्छाई का के्रडिट उस सच्चे पालनहार को दूंगा और इसमें रहीं कमियों के लिए जिम्मेदार मैं रहूंगा।'
मेलकॉम एक्स को अपनी हत्या का अंदेशा था बावजूद इसके उसने पुलिस सुरक्षा की मांग नहीं की। 21 फरवरी 1965 को जब मेलकॉम न्यू यॉर्क के एक होटल में अपनी एक स्पीच देने की तैयारी कर रहा था, तीन काले आदमियों ने उसकी हत्या कर दी। उस वक्त मेलकॉम एक्स की उम्र तकरीबन चालीस साल थी। माना जाता है कि उसकी हत्या में नेशन ऑफ इस्लाम का हाथ था। कुछ लोगों का मानना है कि उसकी हत्या में एक से ज्यादा गुट शामिल थे। ऐसा भी कहा जाता है कि अमेरिकी जांच एजेंसी एफ बी आई जो काले अमेरिकियों के खिलाफ अभियान की सोच रखती थी, वह भी इस हत्याकाण्ड में शरीक थी।
बावजूद इस सबके मेलकॉम की जिंदगी ने कई अमेरिकियों के तौर-तरीकों को प्रभावित किया। मेलकॉम की हत्या के बाद अफ्रीकन अमेरिकियों में इस्लाम में अपनी जड़ें टटोलने की दिलचस्पी बढ़ी। मेलकॉम की आत्मकथा लिखने वाले एलेक्स हेले ने बाद में 'रुट्स' नाम से पुस्तक लिखी। यह पुस्तक एक अफ्रीकन मुस्लिम परिवार के दासी जीवन की गाथा है। स्पाइक ली की फिल्म 'एक्स' ने भी मेलकॉम एक्स में लोगों की दिलचस्पी को बढ़ाया है। मेलकॉम एक्स का संदेश आसान और स्पष्ट है- मैं किसी भी तरह की जातिवादी सोच में भरोसा नहीं रखता। किसी भी तरह के नस्लभेद में मेरा यकीन नहीं है। किसी भी तरह के भेदभाव और इंसानियत को बांटने वाली सोच में मैं विश्वास नहीं करता। मेरा ईमान और यकीन इस्लाम में है और मैं मुसलमान हूं।